balendra pandey 
जीवन जीने और सफलता के पैमाने समय-समय पर भले ही बदलते रहते हैं, लेकिन कुछ चीजें ऐसी हैं जो सनातन काल से चली आई हैं और आज भी नहीं बदलीं। अक्सर हम लोगों के मुख से गाहे -बगाहे सुनते हुए बड़े हुए हैं कि जैसी नीयत वैसी बरकत। यह कहावत त्रेता युग से लेकर आज कलयुग में भी सटीक बैठती है। यदि हम एक ऐसा समर्थवान बनना चाहते हैं जिसके प्रत्येक कर्म में समाज हित या लोक हित निहित हो, तो हम में सफल होने और सफल बने रहने के गुण स्वमेय विकसित होते जाएंगे। त्रेता युग का जिक्र इसलिए क्योंकि जब नीयत बद्नीयत में बदली तो 70 पुत्रों और 72 पौत्रों वाले स्वर्ण की लंका का धीश, वेद-पुराणों के ज्ञाता लंकेश रावण का भी सर्वनाश हो गया था। वास्तव में पराया धन और परायी नारी पर कुदृष्टि डालना जितना आसान है, इसका परिणाम उतना ही भयावह है। शायद इसीलिए तो भगवान भी धरती पर जब-जब अवतरित हुए हैं इंसान को त्याग और तपस्या का ही पाठ पढ़ाया है। भगवान राम ने अयोध्या का राज संभालने से पहले ना केवल समस्त सुखों का त्याग करते हुए वनवास का निर्णय लिया, बल्कि इस दौरान तपस्वी जीवन व्यतीत करते हुए प्रजा के सुख-दुख को नजदीक से जाना। धरती के विभिन्न भू-भाग का भ्रमण कर ऋषि-मुनियों से ज्ञान अर्जित किया और रावण जैसे अनेक आतताई का अंत कर, अपनी शक्तियों का प्रदर्शन कर बताया कि राजा वही है जो अपने सामथ्र्य का प्रयोग समाज हित में करे। वास्तव में ईश्वर व्यक्ति को अपार शक्तियां देता ही इसलिए है कि वह समाज हित में इसका प्रयोग कर खुद के साथ-साथ मानवता के लिए उच्च आदर्शों का निर्माण करे। त्याग और तपस्या से लबरेज भगवान राम जब राजा रामचन्द्र बने तो उन्होंने राजा के जो मानक गढ़े वह आज भी प्रसांगिक है। जिस राम राज्य की स्थापना राजा रामचन्द्र ने की, उसे मूर्त रूप देने की कल्पना आज भी भारत वर्ष करता है। इसी प्रकार द्वापर युग में भगवान वसुदेव ने भी यही बताया कि सामर्थ का समाज के लिए प्रयोग ही धर्म है। कौरव सेना भीष्म, द्रोण, कर्ण जैसे अजय महारथियों से पूर्ण थी, युद्ध में जिनका सामना करने से स्वयं देवता भी कतराते थे, लेकिन जब कुरुक्षेत्र में कौरव-पांडव युद्ध हुआ तो वही विजयी हुए जो समाज हित के लिए लड़े। कुरुक्षेत्र युद्ध में भगवान ने स्पष्ट संदेश दिया कि आप यदि अपने संपूर्ण सामथ्र्य का इस्तेमाल समाज हित में करने की बजाय किसी एक के अहंकार को तुष्ट करने के लिए करते हैं तो आप भले ही अजेय क्यो ना हो, पतन सुनिश्चित है। दुनिया जानती है कि भीष्म, द्रोण, कर्ण ने अपनी समस्त शक्तियों का इस्तेमाल दुष्ट और अधर्मी दुर्योधन के लिए किया। यदि समाज हित में शक्तियों का उपयोग किया होता तो शायद कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध ही नहीं होता, अनगिनत योद्धाओं, सैनिकों को अपनी जान नहीं गंवानी पड़ती। श्रीकृष्ण ने तो यहां तक कहा कि अधर्म के पक्ष में खड़ा हर व्यक्ति अधर्मी है और उसे हराने के लिए यदि अधर्म का सहारा लेना पड़े तो भी वह धर्म बन जाता है। यही बात कलयुग में भी लागू होती है। अक्सर हमारे आसपास ऐसी घटनायें दृष्टिगोचर होती हैं और मुख से अनायास ही निकल पड़ता है जैसी नीयत वैसी बरकत। इतिहास गवाह है द्वितीय विश्व युद्ध का कारण बने इटली के फासीवादी शासक मुसोलनी जब राजा बना तो प्रजा ने मिलान की सड़कें फूलों से सजाई, महिलाएं उस पर फूलों की वर्षा कर रही थीं, इस उम्मीद में कि वे एक महान शासक होंगे। लेकिन राजा बनकर मुसोलनी अहंकारी हो गया और प्रजा की उम्मीदों के विपरीत सिर्फ यातनायें दीं। नतीजा...वही मुसोलनी जब मृत्यु को प्राप्त हुआ तो मिलान की सड़कों पर महिलाओं ने उसके शव को नफरत भरी निगाह से ना केवल देखा, बल्कि उस पर थूका भी, क्योंकि मुसोलनी की नीयत इटली को बरकत देने की बजाय युद्ध में झोंककर बर्बाद करने की थी। वैसे भी नीयत और नियती यानी भाग्य में ज्यादा फर्क नहीं है। जैसी हमारी सोच होगी, वैसा ही भाग्य बनेगा। नीयत यदि नकारात्मक है तो अच्छा भाग्य भी प्रतिकूल परिणाम देता है। इराक के शासक सद्दाम हुसैन, लीबिया का तानाशाह गद्दाफी इसके उदाहरण हैं, जो भाग्यशाली तो हुए, लेकिन अपने घमंड और सत्ता के मद में चूर होकर न केवल अपनी कीर्ति धूमिल की, बल्कि खुद के साथ-साथ परिवार को भी नष्ट कर लिया। इसी पर रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास खिलते हैं, जा पर कृपा राम की होई, ता पर कृपा करें सब कोई। वास्तव में राम की कृपा उसी पर होती है जो कृपा के पात्र होता है। राम की कृपा पात्र व्यक्ति कभी भी समाज और मानवता की अवहेलना नहीं करता। उसकी नीयत में भलाई का बीज अंकुरित होता है, जो बरकत रूपी वृक्ष का रूप लेता है और उस वृक्ष के नीचे सैकड़ा, हजारों की संख्या में लोग अपने तथा परिवार का पालन-पोषण करते हैं। वास्तव में समाज के सहयोग से आगे बढऩे वाला चाहे वह राजा हो, नेता हो, प्रशासक हो या कारोबारी हो, तभी तक फलता-फूलता है जब तक उसकी नीयत में अपनी प्रजा, जनता या कर्मचारियों को लेकर खोट नहीं आता और जैसी ही नीयत में खोट आता है व्यक्ति अंहकारी होकर अपने व्यक्तित्व की सारी खूबियां नष्ट कर पतन को प्राप्त होता है। राजनीति में ही देखें तो कई ऐसे नेता आए हैं, जो अजीवन चुनाव नहीं हारे और मरणोपरांत भी जनता की आंखों के तारे बने रहे। वहीं कई ऐसे नेता भी हमने देखे हैं, जो एक बार विधायक या सांसद तो बन गए, लेकिन अपनी बद्नीयत के चलते दोबारा पार्षद तक का चुनाव नहीं जीत पाए। कारोबारियों की बात करें तो धीरुभाई अंबानी और रतन टाटा ने अपनी नीयत समाज प्रति सकारात्मक रखते हुए मेहनत और तप किया। उन्हें समाज का सहयोग भी मिला। दोनों ने देश ही नहीं दुनिया में टाटा और रिलायंस को पहुंचाया। धीरुभाई के कारोबार को बंटवारा दो बेटों मुकेश और अनिल अंबानी में हुआ।    यहां दोनों की नीयत का जिक्र जरूरी है। एक बार मुकेश अंबानी की बेटी ईशा इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त करते हुए अपने दोस्त से बोलीं थी कि मेरे पास जेट है, कहीं भी आने-जाने  के लिए मुझे टिकट लेने की जरूरत नहीं पड़ती। यह बात जब मुकेश अंबानी को पता चली तो उन्होंने अपनी बेटी को साल भर जेट से यात्रा करने में पाबंदी लगा दी। यह मुकेश अंबानी की सहजता और सरलता के साथ परिवार के प्रति उनकी नीयत को दर्शाता है। इतना ही नहीं एरिक्शन कंपनी का 500 करोड़ रुपए कर्ज चुकाने में विफल रहने के कारण जब अनिल अंबानी को जेल जाने की नौबत आई तो मुकेश ने एरिक्शन का कर्जा चुकाकर अनिल को जेल जाने से बचाया। यह भाई के प्रति मुकेश की नीयत का उदाहरण है। अब अनिल अंबानी की बात करते हैं। प्रदेशवासियों को याद होगा लगभग 12-13 साल पहले अनिल अंबानी ने भोपाल में हिंदी तकनीकी विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा करते हुए भूमि पूजन भी किया था, अखबारों में इस घोषणा से उन्होंने खूब सुर्खियां भी बटोरी, लेकिन यथार्थ में उनकी यह घोषणा हवा-हवाई साबित हुई। आज दोनों भाईयों की नीयत ने उन्हें कहां पहुंचा दिया है, यह किसी से छुपा नहीं है। मुकेश जहां राम कृपा से मिट्टी को भी शायद सोना बना दें, तो अनिल  फर्जी घोषणाओं और गलत निर्णयों के चलते विरासत में मिले कारोबार को कर्ज में डुबोकर सर्वनाश कर दें। वहीं मुकेश अंबानी ने रिलायंस इंडस्ट्रीज के 50 हजार करोड़ रुपए से अधिक का कर्ज चुकाकर ऋण मुक्त कंपनी बनाकर जैसी नीयत वैसी बरकत को चरितार्थ किया। ठीक यही बात रतन टाटा पर भी लागू होती है। जिन्होंने 60 हजार करोड़ रुपए के भारी-भरकम कर्ज वाली एयर इंडिया को न केवल  खरीदा, बल्कि उसे कर्ज से बाहर निकालकर मुनाफे वाली एयरलाइंस कंपनी बनाने का माद्दा भी रखते हैं। एयर इंडिया को खरीदने में रतन टाटा की नीयत साफ है। पहली बात तो उन्होंने एयर इंडिया को खरीदकर अपने पूर्वजों की निशानी को किसी और के हाथ जाने से बचाया है। दूसरी यह कि टाटा ग्रुप की कर्मचारियों को लेकर नीयत हर कोई जानता है। यही वजह है कि एयर इंडिया की बिक्री के समय पायलट से लेकर क्रू मेंबर व अन्य स्टॉफ यही दुआ कर रहा था कि एयर इंडिया टाटा ही खरीदे। इतना ही नहीं आज एयर इंडिया का कर्मचारी टाटा ग्रुप में होकर खुद को सम्मानित महसूस करता है। निश्चित रूप से साफ और स्पष्ट नीयत के लिए जग प्रसिद्ध रतन टाटा अपने कर्मचारियों के दम पर ही एयर इंडिया को मुनाफा वाली कंपनी बनाने का दम्भ भरते हैं। वास्तविकता यही है कि हम यदि जीवन में सुख, शांति और समृद्धि की कामना करते हैं तो पहले खुद को इसके लायक बनाना होगा। स्वयं के प्रति, परिवार के प्रति, समाज के प्रति नियत में बदलाव करके ही सम्मान अर्जित किया जा सकता है, क्योंकि इतिहास बनाने में, बदलने में समय लग सकता है, लेकिन नीयत को नीयति में बदलते देर नहीं लगती। जिस प्रकार माली प्रतिदिन पौधों को पानी देता है, लेकिन पौधा समय आने पर ही फल देता है। उसी प्रकार हमें नेक नीयत के साथ लोक हित के लिए नित्य कर्म करते रहना चाहिए। समय आने पर बरकत रूपी फल निश्चित रूप से मिलेगा। नेक नीयत जहां दलदल से निकालकर समृद्धि प्रदान करती है। वहीं बदनीयत सोने की खान को भी दलदल में तब्दील कर देती है।