भोपाल, जिसने 1984 की औद्योगिक त्रासदी को झेला है, आज फिर एक नई चुनौती का सामना कर रहा है। यूनियन कार्बाइड के जहरीले कचरे का निपटान अब इंदौर के पास पीथमपुर में किया जाना है, जिससे भोपाल और इंदौर के बीच तनाव की स्थिति पैदा हो गई है। यह मुद्दा सिर्फ जहरीले कचरे के निपटान का नहीं, बल्कि नैतिक जिम्मेदारी का है। भोपाल ने भीषणतम त्रासदी का दर्द अकेले सहा और आज भी उसके घाव हरे हैं। राजधानी आज भी औद्योगिक त्रासदी का केंद्र है औद्योगिक क्रांति का नहीं। इसकी हवा, पानी और मिट्टी जहरीली हुई, राहतहीन लाखों लोग प्रभावित हैं। भोपाल का मानना है कि इस कचरे को सुरक्षित तरीके से खत्म किया जाना चाहिए, ताकि इंदौर को इसके जोखिम का सामना न करना पड़े। दूसरी ओर इंदौर के लोग इसे उनकी ज़मीन पर लाने का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि यह उनके पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए नई चिंता पैदा करता है। गंभीर विषय यह है कि इंदौर और पीथमपुर के लोगों का विरोध इस बात पर केंद्रित है कि क्यों औद्योगिक क्रांति वाले शहर को औद्योगिक त्रासदी वाले शहर का बोझ उठाना पड़े। यह विवाद भोपाल और इंदौर को आमने-सामने खड़ा करता है, लेकिन सवाल यह है कि समाधान कहां है? भोपाल ने पहले ही बहुत कुछ सहा है—उसकी हवा, पानी और जमीन दशकों से जहरीली है। अब यह कचरा यहां से हटाकर औद्योगिक शहर ले जाना भोपाल के दर्द को कम करने का प्रयास जरूर है, लेकिन इंदौर के नागरिकों के लिए यह चिंता का नया कारण बन गया है। हम उनकी चिंता में शामिल हैं।

चूँकि इंदौर औद्योगिक रूप से संपन्न शहर है और इस तरह के अवशिष्टों के निष्पादन के सक्षम तकनीकी संयंत्र राज्य में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होने के कारण संभवतः यह निर्णय लिया गया होगा।

भोपाल की पहचान एक “जुझारू शहर” के रूप में है, जिसने त्रासदी से लड़कर खुद को फिर से खड़ा किया। आज यह जरूरी है कि इस शहर को हुई क्षति को पहचाना जाए। कचरे का निपटान जहां भी हो, वह सुरक्षित, पारदर्शी और जिम्मेदारी के साथ होना चाहिए ताकि किसी भी शहर को भविष्य में इसकी कीमत न चुकानी पड़े। भोपाल और इंदौर को इस विवाद से ऊपर उठकर एक साझा समाधान की ओर देखना होगा कि त्रासदी के अवशिष्टों को कैसे विसर्जित किया जाए। क्रेडाई का भोपाल चेप्टर अपने शहर को त्रासदी की नकारात्मक छवि से बाहर निकालकर राजधानी क्षेत्र की विशिष्टताओं को प्रसारित करने के अभियान पर संजीदा प्रयास कर रहा हैं।

मनोज मीक