बालेन्द्र पाण्डेय
बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार के विरोध में जिस तरह से देश में सनातन धर्म के पैरोकार सडक़ों पर उतरे हंै, उससे संपूर्ण विश्व को एक स्पष्ट संदेश जाता है कि अब भारत जैसे विविधता भरे विशाल राष्ट्र में जातिवाद का तिलस्म कमजोर पड़ रहा है और हिंदू अपना धर्म बचाने के लिए जातिवाद का चोला उतारने के लिए तैयार हैं। वर्षों से हिंदुओं को जाति बंधन में बांधकर चंद लोग अपना उल्लू सीधा करते आए हैं, लेकिन निकट भविष्य में यह नहीं चलने वाला। आज देश में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ रहा है, गांव हो या शहर डिजिटल इंडिया के माध्यम से आम से लेकर खास तक देश और दुनिया में चल रही गतिविधियों से रूबरू हो रहे हैं और इस बात को भलिभांति समझ रहे हैं कि अपना अस्तित्व बचाना है तो जात-पात, ऊंच-नीच का भेदभाव छोडक़र एक साथ आना होगा। अब हिंदू जाति प्रथा से ऊपर उठकर धर्म संरक्षण के लिए कार्य कर रहा है। बांग्लादेश में हिंदुओं पर बढ़ते अत्याचार के बाद जिस तरह से देश में हिंदुओं ने विरोध जताया उससे तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों के कान खड़े कर दिए हैं। हैरत की बात तो यह है कि देशभर में हुए इतने विशाल प्रदर्शन के बाद भी कोई भी राजनीतिक पार्टी की ओर से इसे लेकर कोई विशेष टिप्पणी नहीं आई। कई राजनीतिक दल हैरान हंै कि अब तक सनातनियों को जातियों में बांटकर जिस तरह से वे राजनीतिक रोटियां सेंकते आए हैं और शासन करते आए हैं, अगर ऐसा रहा तो आने वाले दिनों में तो उनकी पार्टी का अस्तित्व ही नहीं बचेगा। भारतीय लोकतंत्र में पार्टियां अब तक जातीय समीकरण को साधकर ही सत्ता की दहलीज पर पहुंचती आई हैं। लेकिन अब देश की आवोहवा बदल रही है। बताते चले कि हमारे पड़ोसी देश में जब से अंतरिम सरकार ने पदभार संभाला है। वहां सांप्रदायिकता का अंधेरा पांव पसार रहा है। यूनुस के नेतृत्व वाली बांग्लादेश सरकार के आने के बाद पड़ोस में हिंदुओं पर अत्याचार बढ़ा है। इसी के विरोध में भारत में हिंदू सडक़ों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन करते हुए मोदी सरकार से इस मामले में हस्तक्षेप की मांग की है। वास्तव में देश में राम राज्य लोकतंत्र की परिकल्पना सही मायने में तभी सार्थक होगी, जब देश जातिवाद जैसी सामाजिक कुरीतियां खत्म हों। क्योंकि बड़े पैमाने पर जातीय समीकरण स्वच्छ और स्वस्थ लोकतंत्र के मार्ग में बाधक है। जाति-प्रथा मतदाताओं को प्रभावित करने वाला एक कारक भी है, जिसके प्रभाव में आकर व्यक्ति सही निर्णय नहीं ले पाता। हमारे संविधान के जनक डॉ. बी आर आंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था। उनको विश्वास था कि जब तक जातिप्रथा का विनाश नहीं होता, तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता और न ही आर्थिक।  उनकी बहुत सारी किताबें हैं, लेकिन द एनिहिलेशन ऑफ कॉस्ट सबसे महत्वपूर्ण किताब है। इस किताब में डॉ. आंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था कायम नहीं होगी। वास्तव में जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो आंबेडकर के दर्शन में भरोसा रखता है, विश्वास रखता है। जमीनी हकीकत पर गौर करें तो आज ज्यादातर राजनीतिक दल के नेता डा. आम्बेडकर के चरणों में वोट के लिए सर झुकाते हैं, लेकिन आम्बेडकर के नाम पर जाति-प्रथा को सत्ता प्राप्त का जरिया बनाकर सत्ता का सुख भोग रहे राजनीतिक दल उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को लेकर आगे बढऩे और जनता के हित में सही मायने में लोकतंत्र स्थापित करने कोई भी ठोस कदम उठाने के लिए तैयार नहीं है। कुछ राजनीतिक दल जाति के नाम पर संविधान की आड़ ले रहे हैं, जबकि संविधान निर्माता बाबा आंबेडकर का स्पष्ट कहना था कि संविधान में निहित कोई भी प्रावधान चीरकाल तक के लिए नहीं है, समय-समय पर इसमें आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार संशोधन किया जा सकेगा। डॉ आंबेडकर के अनुसार, जाति का शिकंजा खत्म किए बिना कोई उन्नति संभव नहीं है। यहां तक की स्वतंत्रता प्राप्ति के 78 साल बाद भी देश के ज्यादातर राजनीतिक दल जो डा. आम्बेडकर के पदचिन्हों पर चलने का दंभ भरते हैं उन्होंने जाति वाद के विनाश के लिए अब तक कोई पहल नहीं की है। बल्कि हिंदू समाज को जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर रहीं हैं। समाज को जातियों में बांटकर आरक्षण के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाने का कार्य किया है। वर्तमान में कई पार्टियां लोगों को जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए अभियान चला रही हैं। बता दें कि डॉ. आम्बेडकर के विचारों की सबसे बड़ी पैरोकार और चार बार मुख्यमंत्री रहीं बीएसपी सुप्रीमो  मायावती ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर हल्की की खरोंच आए। हालांकि आज का हिंदू राजनीतिक दलों की कुटिल चालों को समझ चुका है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश जहां डा. आम्बेडकर के नाम पर दलित वर्ग के वोट बैंक पर बहुजन समाज पार्टी ने कब्जा किया था, वह जनाधार धीरे-धीरे खिसक रहा है और आज स्थिति यह है कि बीएसपी यूपी में अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। वास्तव में जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक और समाजिक विकास का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। बीएसपी का कमजोर होता जनाधार इस बात का उदाहरण है कि जाति-प्रथा और हिंदुओं को बांटने की राजनीति करने वालों का निकट भविष्य में हश्र क्या होगा?  द एनिहिलेशन ऑफ कॉस्ट पुस्तक में जाति के समूल नाश के लिए राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन किया गया है। यह पुस्तक बताती है कि डॉ आंबेडकर के विचारों के पैरोकार करने वाले राजनीतिक दल जाति प्रथा को बनाए रखने में रुचि रखते हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। इस पुस्तक में आंबेडकर ने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा भरा समाज होगा। बता दें कि एक आदर्श समाज के लिए उनका यही सपना था। वैश्विक स्तर के समाज शास्त्रियों के अनुसार, जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीति क विकास में सबसे बड़ी बाधाक है। वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी आम्बेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में अब आर्थिक विकास को पंख लगे हैं। इसका असर जाति प्रथा पर भी पड़ा है। जातीय व्यवस्था अब कमजोर होने लगी है। जैसे-जैसे राष्ट्र विकास करेगा, वैसे-वैसे जाति व्यवस्था खत्म होती जाएगी। बांग्लादेश में हिंदुओं की सुरक्षा के बहाने सडक़ों पर उतरा जन सैलाब इस बात का सबूत है कि अब हिंदू जागृत हो रहा है और वह स्वयं जातिय बंधन तोडऩे को आमादा है, जो कई राजनीतिक पार्टियों के लिए खतरे की घंटी है। जाति का नाग शदियों से मानवता को डसता आया है। इसने कभी एकलव्य का अंगूठा लेकर प्रतिभा का हनन किया, तो कभी दानवीर कर्ण के लिए अभिशॉप का कारण बना। वर्तमान में कुछ पार्टियां भी फूट डालो और शासन करो की नीति अपनाकर जाति के नाम पर लोगों को लड़ाती आई हैं, लेकिन अब हिंदुत्व के ध्वज तले सनातनी एकत्रित हो रहे हैं और आने वाले दिनों में यदि संकीर्ण विचारधारा वाले राजनीतिक दल अपना चाल, चरित्र और चेहरा नहीं बदलते तो निश्चित रूप से इनका जनाधार निरंतर घटता जाएगा। बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार के विरोध में सनातनी जिस तरह से एक होकर विरोध जताया है, उससे कई राजनीतिक दलों के पैरों तले से जमीन खिसकती नजर आ रही है। वे अब समझ चुके हैं कि हिंदू अब धीरे-धीरे जाति बंधन तोड़ रहा है और वह धर्म रक्षा के लिए आगे आ रहा है। ऐसे में जातीय प्रलोभन से काम नहीं चलने वाला। वास्तव में यदि हम सही मायने में विविधता भरे विशाल भारत में एकता की बयार बहाना चाहते हैं और सही मायने में देश में लोकतंत्र की भावना को अंगीकार करना चाहते हैं तो जातीय बंधन से मुक्त होना ही पड़ेगा।